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गुरु का जीवन में महत्व ?

  • Apr 5, 2021
  • 4 min read

गुरु शब्द में “गु” का अर्थ है अन्धकार और “रू” का अर्थ अंधकार को हटाने वाला। अर्थात जो अज्ञान रूपी अंधकार को हटाकर ज्ञान के मार्ग पर पथ प्रदर्शित करे, वही गुरु है।

कुछ उदाहरण से समझते हैं …

अपने बचपन का याद न हो लेकिन छोटे बच्चों का चलना अवश्य देखा होगा। देखा होगा कैसे बच्चे की माँ उसकी छोटी सी उँगली को पकड़ कर उसे चलना सिखाती है और बच्चा पूरे भरोसे के साथ एक-एक कदम चलता है। धीरे-धीरे एक दिन बच्चा अपने पैरों पर खड़े होकर खुद चलने लगता है, अब उसे माँ के सहारे की जरूरत नहीं है।

उपरोक्त उदाहरण में देखा बच्चे को सहारा देकर माँ ने उसे स्वयं चलना सिखा दिया ठीक उसी प्रकार अज्ञानता से भरे संसार में गुरु ज्ञान का सहारा देकर आपको चलना सिखाता है। इसीलिए माँ को इन्सान का पहला गुरु माना जाता है, गुरु की महिमा माँ से कम नहीं है।

और समझें …

"गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूं पांय।बलिहारी गुरू अपने गोविन्द दियो बताय।"

गुरु के बताने पर ही आप भगवान को भी जान पाते हो, इसलिए गुरु को ईश्वर से भी पहले नमस्कार है।


अब प्रश्न यह भी उठता है क्यों चाहिये गुरु ?


जैसा मैंने पहले भी बताया गुरु आपका मार्गदर्शक है, आपको अन्धकार से प्रकाश की ओर जाने में दिशा तय करने में मदद करता है।


उदाहरण के लिए, मान लें आप दिल्ली से कश्मीर की यात्रा पर निकलते हैं, तब आप यकीनन यही चाहेंगे कि कश्मीर आप सही समय पर, सही रास्ते से, सही सलामत पहुँच जाएं। तब आप अवश्य ही ऐसे किसी जानकार से वह सारी जानकारी इकट्ठा करेंगे जिससे आपकी यात्रा सुगम और लाभदायी बनें।ऐसा जानकार कौन हो सकता है इसको 4 स्थिति में बाँट कर समझें -


  1. जो कश्मीर पहुँच चुका हो

  2. जो कश्मीर आता जाता रहता हो

  3. या कम से कम कश्मीर की यात्रा एक बार तो जरूर की हो

  4. कभी-कभी उपरोक्त जानकार न मिलने पर किसी ऐसे व्यक्ति से भी जानकारी ले लेते हैं, जो कश्मीर की यात्रा पर निकला था लेकिन पहुँचा नहीं है।


इस चौथी स्थिति में सजगता बहुत जरूरी होती है क्योंकि जो जानकारी मिली है वह पर्याप्त नहीं है, परन्तु यात्रा आरम्भ करने के लिए आवश्यक है।


ठीक उसी प्रकार गुरुजन आपको जीवन के रास्ते पर सुगमता से चलना बताते हैं, मंजिल पर पहुंचना सिखाते हैं। वे वो सारी जानकारी देते हैं जिससे आप अपने जीवन यात्रा को सुगम्य बना पाते हैं।


सच्चे गुरु को कैसे पहचाने ?


सुना होगा कभी, कहीं, किसी न किसी से “गुरु को तुम नहीं ढूंढते, गुरु तुम्हें ढूंढ लेता है”बात थोड़ी सी सही भी लगती है, जब इस बात का ज्ञान हो ही जाये, क्या जानना है, कितना जानना है, किससे जानना है फिर जानने को बाकी रह ही क्या गया? फिर गुरु का प्रयोजन ही क्या रह जायेगा। इसलिए ऐसा कहते हैं गुरु तुम्हें ढूंढ लेते हैं, तुम गुरु को कैसे ढूँढ पाओगे?

तब सवाल यह उठता है –गुरु को पाने के लिए क्या करें, कहीं बैठ कर इंतजार करें?कहाँ मिलेंगे और कहीं किसी रोज़ मिल भी गये तो पहचानेंगे कैसे?

इस दुविधा से निकलने के लिए समझें –गुरु आप किसी को उसके रंग, रूप, वेश आदि के लिए नहीं बनाते। आप गुरु बनाते हैं क्योंकि किसी व्यक्ति विशेष के गुण, उसके कर्म, उसके आचरण, उसके व्यवहार से आप प्रभावित होते हैं। वैसे ही आचरण, वैसे ही कर्म करना चाहते हैं। उस व्यक्ति विशेष के जैसा ही आप बनना चाहते हैं। यही है गुरु और शिष्य का सम्बंध। एक गुरु के हर शिष्य में उसका गुण विद्यमान रहता है, या ऐसा कह लो हर शिष्य में उसका गुरु छुपा होता है।

वास्तव में गुणों का हस्तांतरण ही गुरु शिष्य परम्परा है, आप गुरु व्यक्ति विशेष को नहीं अपितु गुण विशेष को बनाते हो।अच्छे गुरु पाने के साथ अच्छा शिष्य बनना भी जरूरी है। बहुधा ऐसा होता है शिष्य किसी क्षेत्र विशेष में गुरु से आगे निकल जाता है। ऐसा होने पर भी गुरु की महत्ता कम नहीं होती। जैसे आप जीवन यात्रा के किसी भी पड़ाव पर हों माँ की महत्ता कम नहीं होती। जिस दिन आपके अन्दर अपने गुरु के प्रति सम्मान कम होने लगे, समझ जाना आपके अन्दर उस गुरु के दिये गुणों में कमी होनी शुरू हो गई।


आज के परिपेक्ष्य में गुरु और शिष्य के कर्तव्य


मैं गुरुजनों से कर बद्ध निवेदन करता हूँ अगर आप किसी गुरु पद पर प्रतिष्ठित हैं तो इस पद का यथोचित सम्मान करें। गुरुजनों के हर व्यवहार का शिष्यों पर बहुत ही गहरा और दीर्घकालिक प्रभाव पड़ता है।


शिष्यों के कर्तव्य


1. गुरु से किसी भी क्षेत्र में आगे निकल आने पर अहंकार की भूल न करें। अगर आप किसी क्षेत्र में गुरु से आगे निकल भी जाएं तो गुरु के प्रति सम्मान कम नहीं होना चाहिए। उस गुरु के दिये प्रारंभिक ज्ञान के अभाव में आज आप वो नहीं होते, जिसका अहंकार आप पर हावी हुये जा रहा है।

2. कभी-कभी जब गुरु कुछ सिखाते हैं तो शुरुआत में विषय रुचिकर लगता है फिर कुछ समय बाद उसी विषय में रुचि कम होने लगती है। ऐसे में गुरु की सारी बातों पर आप ध्यान नहीं देते और अपनी अतुलनीय हानि कर बैठते हैं। इसलिए अपने गुरु पर भरोसा अवश्य रखें और मार्गदर्शन का पूरा का पूरा अनुकरण करें।

3. सबसे बड़ी भूल – गुरु चुनने के लिए गुरु की परीक्षा लेने की की भूल न करें, ऐसा करने से आपके अन्दर अहंकार का जन्म होता है और आप सीखना स्वीकार नहीं कर पाते हैं। जैसा मैंने पहले भी कहा है गुरु व्यक्ति विशेष नहीं बल्कि गुण विशेष होते हैं। किसी भी गुरु से पूरे समर्पण भाव से सीखो फिर अपनी परीक्षा लो कितनी उन्नति की तुमने। अगर अपनी कसौटी पर खरे नहीं आते तो गुरु का दोष नहीं मानें। बस सीखने का तरीका बदल दो।

अपने आप को भी अपना गुरु बना सकते हैं, लेकिन उसके लिए अपना प्रतिदिन, प्रतिक्षण मूल्यांकन एवं निरीक्षण करते रहें।


मूल्यांकन इस तरह से कर सकते हैं– अनुशासन– स्वाध्याय– अभ्यास (अच्छे कर्मों को आचरण में उतरना )

एक बात हमेशा याद रहे, आपके मनोभाव जैसे होंगे वैसे गुरु आपको मिलने लगेंगे और गुरु व्यक्ति विशेष नहीं, गुण विशेष होते हैं।

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