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प्रेम या मोह ?

  • Jun 4, 2021
  • 4 min read

Updated: Jul 5

कितना अच्छा होता अगर भावनाओं के स्तर पर अडिग रहना, शान्त रहना सीख जायें। चाहे दुःख की सूचना आये या खुशियों का अम्बार लग जाये। परन्तु ऐसा होता नहीं है, न तो इन्सान खुशी पाकर शान्त रह पाता है न दुःख पाकर ही।

एक दुःख की सूचना मिली और शान्ति भंग हो गई, संयम खो गया। इतने असंतुलित हो गये कि अपने कर्मों पर भी नियंत्रण न रहा। सिर्फ दुःख ही नहीं ख़ुशी की स्थिति में भी हमारा व्यावहार ठीक ऐसे ही बदल जाता है।


परन्तु इसका कारण क्या है ? इसका एक मात्र कारण है अन्दर प्रफुल्लित होता हुआ मोह।

आपको मिली दुःख या ख़ुशी सूचना की आपसे जितनी ज्यादा नजदीकी हो, यह सूचना उतना ही आन्दोलित अथवा आह्लादित करती है।


उदाहरण के लिये समझें …


आपके पास है एक कागज़ का टुकड़ा जिसपे आपने कुछ हिसाब लिखा है,

एक आपकी डायरी जिसमें आप रोज लिखते हैं,

और एक आपके सम्पति का कागज।


खो गये सारे, अब आप सोच कर देखें किसके खोने का दुःख ज्यादा है आपको। यकीनन सम्पति क्योंकि आपका लगाव उससे ज्यादा है। आपका मोह उससे ज्यादा है।


चलिये एक दूसरे उदारहण को देखते हैं,

आपने टीवी में समाचार देखा, किसी देश में किसी एक इन्सान की मौत हो गई। क्या फर्क पड़ा? कुछ भी नहीं, आप समाचार देखते समय, आराम से खाने का स्वाद लेते हुये, इस बात की चर्चा करते हुए भी खाना खा सकते हैं।

अब दूसरा समाचार सुना, किसी की मौत आपके पड़ोस में हुई है। अब ?

अब खाना तो खा सकते हैं, शायद खाने का स्वाद ढंग से न ले पायें।

अब तीसरा समाचार, मौत आपके घर में आपके किसी प्रिय की हुई है। अब ?

अब खाना गले से नीचे नहीं उतरता।


क्या तीनों स्थिति में कागज़ अलग है अथवा मौत अलग है ?

नहीं, काग़ज़ वही है और मौत भी वही है, अन्तर है आपके लगाव का, आपके मोह का।


तब आपका प्रश्न होगा, मोह आपको छोड़ता नहीं क्या करें?

नहीं, सत्य यह नहीं है। सच यह है कि आप मोह को नहीं छोड़ते। और यही मोह आपका बन्धन है।


प्रश्न फिर यह आता है, अगर मोह न हो कोई संसार में रहे कैसे, रिश्ते कैसे निभाये?


प्रेम से रहे, प्रेम से रिश्ते निभाये। प्रेम को मोह और मोह को प्रेम समझने की भूल अक्सर होती है। अगर मोह को बन्धन कहा जाये तो प्रेम को आज़ादी कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है। प्रेम जहाँ त्याग सिखाता है वहीं मोह आपको सिर्फ स्वयं के बारे में सोचना सिखाता है।
प्रेम दो लोगों के लिये बराबर परिमाण में हो सकता है लेकिन मोह हमेशा एक के प्रति ज्यादा और कम हो जाता है।
प्रेम अहंकार को तोड़ता है, मोह अहंकार को जन्म देता है।

फिर प्रश्न उठता है, कैसे रहें प्रेम में? कैसे जाने प्रेम है या मोह ?


एक छोटी सी स्थिति से समझें, इस संसार में कुछ भी लेकर नहीं लेकर जाना है इतना तो आप जानते हैं। जब कुछ लेकर आये नहीं, लेकर जा नहीं सकते फिर वह वस्तु आपकी हुई कैसे? विचार करें। यह सिर्फ मोह का बन्धन है जो आपको बार बार कहता है – यह मेरा है बाकी किसी और का।

और जो मेरा हुआ उसके प्रति आपका लगाव बढ़ा, मोह बढ़ा।

और जो कुछ जितना ही ज्यादा मेरा है, उसके प्रति उतना ही ज्यादा मोह बढ़ा।

और तब जितना ज्यादा मोह उतना ही ज्यादा उसके पाने और खोने की स्थिति आपको आन्दोलित करेगी।


प्रेम में रहने के लिये, इस दुनियाँ में यात्री की तरह रहें। सराय में रुक सकते हैं। उस पर अपना अधिकार समझना और मोहग्रस्त होना अनुचित है।

एक दूसरे उदाहरण से समझें, स्थिति को…

घर में काम करने वाली कामवाली घर का देख भाल करती है। आपके बच्चों के साथ स्नेह सम्बंध हो जाते हैं। लेकिन कभी भी घर, घर की वस्तु या बच्चों पर अपना अधिकार नहीं समझती है। इसे ही प्रेम जाने, ऐसे ही मोह के बिना प्रेम में रहा जा सकता है।

इतना कुछ पढ़ने समझने के बाद भी आसान नहीं इस बात को आत्मसात कर पाना। जो पुत्र है, जो माँ है, भाई-बहन हैं; कम से कम ये तो अपने ही हैं, ऐसा ही प्रतीत होता है। इस बात को और लंबा न करते हुए कहा जाये – यह शरीर भी नहीं अपना, इसे भी यहीं से लिया यहीं छोड़ जाना है। फिर शरीर जनित रिश्तों का क्या?

इसलिए प्रेम में रहें मोह में नहीं, अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते रहें।


इसी मोह से बचने के लिए कृष्ण ने अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया।


इतना सब के बाद भी अगर सुनकर ही स्थिति परिस्थिति को बदल देना सम्भव होता फिर तो बात ही क्या थी। इसे जीवन में क्षण-प्रतिक्षण उतारना होगा और इसी के लिए जरूरत पड़ती है ध्यान साधना के अभ्यास का। जो आपको मोह के बन्धन, भूत एवं भविष्य की कहानी से दूर शान्ति के साथ वर्तमान मे स्थिर रहना सिखाती है।


जब भूत/भविष्य की कहानियों से मन, परेशान होना कम करने लगता है तो मन संतुलित होने लगता है, आपकी भावनाएँ संतुलित होने लगती है।


एक योगी के जीवन में इसका क्या महत्व है?


योग अर्थात आत्मा का परमात्मा में विलय, इस स्थिति को समझिये। यहाँ विलय का अर्थ ऐसा नहीं है घर एक लोटा पानी को लाकर समुंदर में मिला दिया। यहाँ योग का अर्थ है इस बात का ज्ञान हो जाना। इस समुंदर और लौटे के पानी में कोई अन्तर नहीं है। समन्दर का पानी सूर्य के धूप में उड़ा, बादल बना, पानी बरसा और फिर लोटा तक पहुँचा।

जब आप अपनी भावनाओं को संयमित करने लग जाते हैं, तब आपके स्थिर और शांत मन में आपके समुंदर होने का ज्ञान उत्पन्न होने लगता है। जब तक आप भावनाओं के स्तर पर आन्दोलित रहेंगे, मोह ग्रसित रहेंगे। और आन्तरिक यात्रा शुरू नहीं हो सकेगी।

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